याद है बारिशों के दिन थे वो, पंचम!
और पहाडी के नीचे वादी में धुंध से झाँक कर
निकलती हुई रेल की पटरियां गुजरती थीं.
और धुंध में ऐसे लग रहे थे हम, जैसे दो पौधे पास बैठे हों.
हम बहुत देर पटरियों पर बैठे उस मुसाफिर का ज़िक्र करते रहे,
जिसको आना था पिछली शब् पर उसकी आमद का वक़्त टलता रहा.
हम बहुत देर पटरियों पे बैठे हुए ट्रेन का इंतज़ार करते रहे.
ट्रेन आयी न उसका वक़्त हुआ,
और तुम यूँ ही दो क़दम चलकर धुंध पर पाव रखके गुम हो गए.
मैं अकेला हूँ धुंध में. पंचम ! - गुलज़ार
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